Sunday, May 15, 2011

नीम और निबोरी......

नीम के एक पेड़ ने अपनी निबोरी से कहा
मैं तो था कड़वा ही पर तू तो मीठी होती ज़रा
छोटी निबोरी चुप रही क्या वो कहे कैसे कहे
आखिर वो है जिस पेड़ से उसका ही उसमे रस बहे

एक दिन वो डाली गिर गयी
छोटी निबोरी झड गयी
अब नीम तनहा रह गया
सब रस ताने से बह गया
वो निबोरी नीचे गिरी और धरा में जा गडी
आसमान रोया था उस दिन, पानी की बूंदे उस पर पड़ी
कुछ कोपले सी निकल आई 
पुराने नीम के नीचे हरियाली छायी
कुछ दिन मैं एक पेड़ हो गया
पुराना नीम उसमे कही खो गया

एक दिन निबोरी ने यूँही उस पेड़ से कुछ बात ही
कुछ गाँव की, कुछ खेत की, दुनिया की, कुछ हालत की
आखिर निबोरी ने कहा बाबा मैं तेरा अंश था
चाहें मैं कडवी ही सही पर मुझमे ही तेरा वश था
और क्या मैं कडवी खुद से थी क्या तेरा कोई हाथ नहीं
मैं बन सकू मीठी ज़रा क्यों किये ऐसे जज्बात नहीं
मैं कडवी हो कर भी तेरे हर हाल मैं संग ही रही
जब झड गयी मैं डाल से तब भी हवा में न बही
जब बन सकी एक पेड़ में तेरे ही साए में बनी
तेरी इस ढलती उम्र में तेरे सहारा मैं ही सही
मैंने तो ये बस यु किया की तेरा न ख़त्म वजूद हो
तू जब कभी अगर सूख जाये तेरा वंश तो मोजूद हो

में स्वाद में कडवी सही पर दिल में मेरे मिठास है
हूँ  मैं  निबोरी जब तेरी मुझमे तेरा भी वास है
जो मैं अगर मीठी होती तो तोड़ लेता जग मुझे
हो जाती मैं मजबूर और छोड़ जाती मैं अकेला तुझे

में खुश हु कडवी हो के भी आखिर तेरे मैं संग हु
तू भी कड़वा मैं भी कडवी बस तेरी ही तरंग हूँ
तेरी ही साए मैं मुझे धरती ने पेड़ बनाया है
में मीठी नहीं कोई बात नहीं कडवी रह के तुझे पाया है
कडवी रह के तुझे पाया है 


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