आजकल सोने से ज़रा घबराता हूँ
तु रोज़ मेरे ख्वाब में आती है
रोज़ फिर अपने को ही समझाता हूँ
कितना भी कहू खुद से, खुद को बेबस पाता हु
जब तक तु गयी ना थी, नींद का कुछ सुरूर था
जानता नहीं पर तुम दोनों का कुछ रिश्ता ज़रूर था
अब ना तु करीब है, ना रातें मुझे सुलाती है
जब होती है कुछ देर को आँखें बंद, तु झट सपने में आती है
अब आना है तो खुल कर आ, क्यों मुझसे आँख-मिचोली है
तेरे चहरे पे शिकन बहुत, मेरी आँखें भी खूब रो ली है
आखिर जो आना है कल को तो aaj ही से कुछ बात तो कर
कैसी भी हो, कितनी हो बड़ी हल होती मुश्किल मिल जुल कर
पर कम से कम तु खुद तो आ
और बंद कर ख्वाबो का सफ़र
ऐसा ना हो कुछ वक़्त लगे
हो जाये तब तक मेरी ही सहर
हो जाये तब तक मेरी ही सहर.......
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