Saturday, January 8, 2011

सोने से ज़रा घबराता हूँ

आजकल सोने से ज़रा घबराता हूँ 
तु रोज़ मेरे ख्वाब में आती है 
रोज़ फिर अपने को ही समझाता हूँ 
कितना भी कहू खुद से, खुद को बेबस पाता हु 

जब तक तु गयी ना थी, नींद का कुछ सुरूर था 
जानता नहीं पर तुम दोनों का कुछ रिश्ता ज़रूर था 
अब ना तु करीब है, ना रातें मुझे सुलाती है 
जब होती है कुछ देर को आँखें बंद, तु झट सपने में आती है 

अब आना है तो खुल कर आ, क्यों मुझसे आँख-मिचोली है 
तेरे चहरे पे शिकन बहुत, मेरी आँखें भी खूब रो ली है 
आखिर जो आना है कल को तो aaj ही से कुछ बात तो कर 
कैसी भी हो, कितनी हो बड़ी हल होती मुश्किल मिल जुल कर 
 पर कम से कम तु खुद तो आ 
और बंद कर ख्वाबो का सफ़र 
ऐसा ना हो कुछ वक़्त लगे 
हो जाये तब तक मेरी ही सहर 

हो जाये तब तक मेरी ही सहर.......

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