कितने ही ख़त तुझे मैंने लिखे और लिख कर भी सब फ़ना किये
लिख कर भी रखू तो क्या मैं करू , कैसे मैं भेजू इन्हें और कहाँ
इस शहर में रहता था तु एक दिन, तेरा पता था मालूम मुझे अब तु नहीं रहता वहां तो अब, तलाश में तेरी है सारा जहान
अक्सर मैं सुनता हूँ की मैं बस यूँ हँसता रहता हूँ
अक्सर ही ये होता है मैं दिन ढले महफ़िलो मैं हूँ
पर अब तलक ना देख पाया आँखों में और दिल में
किस कदर हूँ अकेला, तनहा दिल मुश्किलों में हूँ
ये कदम खुद-ब-खुद मुझे ले जाते है वहां
कुछ वक़्त बिताने को जहाँ रुक गए थे हम
अब वो सराये खाली है, बस्ती भी शायद उजड़ गयी
बस वक़्त ठहरा ही रह गया, तुम छोड़ गए तन्हाई और गम
मुझको गिला नहीं की तुम साथ नहीं आज
बस इतना सा मलाल ही की कुछ ना कह सका
तुम छोड़ गए एक ख़त लिख कर की तुम मेरे नहीं
अपना कोई निशान भी छोड़ा नहीं कहीं
तुम इतने मुझमे थे की तुम की अब भी तुम मुझमे ही हो
ये जानते तो तुम भी थे फिर क्यों में ही ऐसे तनहा रहू
मुझको नहीं यकीन की तुम मुझसे दूर हो
हो जिस्म कहीं भी पर रूह के करीब ज़रूर हो
अब जल्दी ही ये मेरी हँसी होंटो से आँखों में आएगी
तेरी है जो तकदीर तुझे, फिर मेरे करीब ही लाएगी
तब तक तेरी और मेरी भी सदायें नहीं सुनेगा ये जहान
लिख कर करू में क्या ये ख़त, भेजू तुझे कहाँ
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