Monday, December 27, 2010

लहू और पानी .....

बड़ी पुरानी बात है, पर आज भी वही हालत है 
एक दिन वो था जब भाई भाई की जान था 
उसकी ख़ुशी पे अपने लहू का हर कतरा कुर्बान था 
पर आज कहाँ वो भाई है, आज कहाँ क़ुरबानी है 
लहू लहू था बस उन दिनों, आज लहू भी पानी है 

ऐसा नहीं की दादी नानी अब रात को कहानी नहीं सुनाती
ऐसा नहीं की माँ अब प्यार से रोती तोड़ के नहीं खिलाती 
जब सब वो है तो ये दुनिया क्यों अब लगती अनजानी है 
मेरी नहीं है, तेरी नहीं है, हर घर की यही कहानी है 

आज वो भाई भाई नहीं है, बस एक रिश्ते का नाम है 
शायद ये कलयुग है, इस रिश्ते का नया आयाम है 
शायद कल जो हमने बोया था उसका ये अंजाम है 
खाई इतनी गहरी हुई की, भरने की कोशिश भी नाकाम है 
किसको कहे और कैसे कहे हम, बात भी ये अब बेमानी है 
आज ये सोचु क्या है मेरा, ये मेरी नादानी है 

क्यों ये रिश्ते दिए खुदा ने, क्यों कर ऐसा दर्द दिया 
क्यों बस आज नाम सा ही है, रिश्तो को इतना सर्द किया 
दर्द अगर ये दिया खुदा ने, वो ही इसकी दवा देगा 
वही खुदा है और हम बन्दे, एक दिन ज़रूर दिखा देगा 
एक दिन होगा सूरज की किरणे फिर से यु शर्माएंगी 
उन से ज्यादा गर्मी और शक्ति फिर रिश्तो मैं छाएगी 
दिन अब बस वो दूर नहीं है, बात ये बस कुछ दिन की है 
चुक गए है दिन अमावस के, पूर्णिमा आने वाली है 
होगा वही जो वो चाहेगा, बात ये जानी पहचानी है 
आज लगे या नहीं पर ये लहू लहू है, ये अब तक नहीं पानी है 
ये अब तक नहीं पानी है …..



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