ज़िन्दगी में कुछ इस कदर मसरूफ हो गया
दिन भर तो सिर्फ काम किया हुई रात सो गया
दिन भर तो सिर्फ काम किया हुई रात सो गया
कभी मुझे पसंद था सूरज को देखना
बस हाथ तापते हुए अंगीठी पे भुट्टे सेकना
पर क्या अब भी सूरज उसी सादगी से निकलता है
क्या अब भी दिन सुरमई आभा से ही ढलता है
क्या अब भी मेरे घर पे है सूरज की किरण आती
क्या अब भी नाचता है मोर जब भी घटा छाती
क्यों अब ना इंतज़ार है, ना इनसे मुझको प्यार है
करना क्या ऐसे काम का जिसमे सिर्फ व्यापार हो
क्या ज़िन्दगी सच मुच बनी रहेगी इस तरह
क्या काफी नहीं है जो मैंने अब तलक सहा
मुझको मेरा सुकून वो चैन वापिस दो ज़रा
रहना है मुझे जिंदा, नहीं जैसे कोई गुमनाम मरा
गर आज आपने मुझे बक्शा है मुझे मेरी रूह का करार
कल आपसे और जग से भी में कर सकूँगा खूब प्यार .....
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