Friday, November 19, 2010

अजीब ज़िन्दगी

ज़िन्दगी में कुछ इस कदर मसरूफ हो गया 
दिन भर तो सिर्फ काम किया हुई रात सो गया 

कभी मुझे पसंद था सूरज को देखना 
बस हाथ तापते हुए अंगीठी पे भुट्टे सेकना 
पर क्या अब भी सूरज उसी सादगी से निकलता है 
क्या अब भी दिन सुरमई आभा से ही ढलता है 
क्या अब भी मेरे घर पे है सूरज की किरण आती 
क्या अब भी नाचता है मोर जब भी घटा छाती 

क्यों अब ना इंतज़ार है, ना इनसे मुझको प्यार है 
करना क्या ऐसे काम का जिसमे सिर्फ व्यापार हो 
क्या ज़िन्दगी सच मुच बनी रहेगी इस तरह 
क्या काफी नहीं है जो मैंने अब तलक सहा 

मुझको मेरा सुकून वो चैन वापिस दो ज़रा 
रहना है मुझे जिंदा,  नहीं जैसे कोई गुमनाम मरा
गर आज आपने मुझे बक्शा है मुझे मेरी रूह का करार 
कल आपसे और जग से भी में कर सकूँगा खूब प्यार .....


No comments:

Post a Comment